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हिमाचल प्रदेश का प्राचीन इतिहास / ANCIENT HISTORY



1 प्रागैतिहासिक एवं वैदिक काल / VEDIC PERIOD





प्रागैतिहासिक (Pre-historic) हिमाचल-





प्रागैतिहासिक काल में लिपि का विकास नहीं हआ था।





इस समय के मानव के काई लाख लहाहम कवल पुरातात्विक स्रोतों पर ही इस अवधि के लिए निर्भर थे। इस अवधि को पुरापाषाण काल (30 लाख से 10 ह काल (1000BC-4000BC) और नवपाषाण काल (7000BC-1000BC) में बांटा गया है-





एतहासिक काल (Proto-historic) उस कालखण्ड को कहते हैं, जिसमें लिपि तो थी, किंतु अभी तक पढ़ी नहीं जा सका है, जस-हड़प्पा काल







पुरापाषाणकालीन स्रोत-1951 में सतलज की सहायक नदी सिरसा के दायीं ओर नालागढ़ में ओलाफ प्रफर को पत्थरों से बने औजार जस खुरप आद प्राप्त हुए है।





1955 में बी.बी. लाल ने गुलेर, देहरा, ढलियारा तथा काँगड़ा से आदिसोहन प्रकार के 72 पत्थरों के उपकरणों के नमूने प्राप्त किए हैं।





इनमें चापर, हस्त कुठारें और वेदनी प्रमख है।





डॉ. जी.सी. महापात्रा ने भी सिरसा नदी घाटी और काँगड़ा में उत्तर पाषाण काल (30 लाख-4 लाख वर्ष पूर्व) कपत्थर क बने औजारों के अवशेष प्राप्त किए हैं।





सिरमौर की मार्कंडा नदी के सकेती क्षेत्र में 1974 में इस अवधि के अवशेष प्राप्त हुए हैं।





(2) मध्यपाषाण एव नवपाषाणकालान स्त्रोत -





भारत म इस अवधि (10000BC-1000BC) को एक माना गया है, जबकि यूरोप में इसका विभाजन किया गया है।





स्थाया काष आर सभ्यताआ का उद्गम इस अवधि के दौरान हआ।





रोपड में कोटला-निहंग मनवपाषाण युग के प्रमाण मिले हैं।





सपना नदियों की तलहटी में भूरे रंग के चित्र मिट्टी के बर्तनों में बने मिले है।





(3) आऐतिहासिक (सिंधु सभ्यता के समय) हिमाचल के निवासी





कोल-कोल हि.प्र. के मूल निवासी हैं जिन्होंने नव पाषाण यान


हान नव पाषाण युगीन संस्कृति की नींव डाली थी।





पश्चिमी हिमालय में वर्तमान के काली हाली, ड्रम, चनाल, बाढा आदि लोग काल जाति में से ही हैं।


कोल जाति का हिकमें बसने का पता कमाँऊ की चन्देश्वर घाटी की चट्टानों से मिलता है।





किरात-किरात (मंगोल) कोल जाति के बाद यहाँ आने वालीदूसरी जाति थी।


ऋषि वशिष्ठ ने उन्हें 'शिश्नदेव' (लिंग देवता की पूजा करने वाले ) कहा है।


किराता का पहाडी तलहटी से ऊँचे पर्वतों की तरफ भगाने वाले खश थे।


मनु ने भी किरातों का वर्णन किया है ।


का हिमालय के निवासी बताया गया है।


वनपर्व (महाभारत के अध्याय 140 में इनके निवास का वर्णन मिलता है।


कालिदास के रघुवंश में किन्नेरों का उल्लेख मिलता है।





नाग-इस जाति के लोग हिमाचल की पहाड़ियों में हर जगह बसते थे।


मण्डी के पंचवक्त्र शिव मंदिर में नागों की 10 फुट ऊँची मूर्तियाँ हैं।


हड़प्पा सभ्यता का मुहरों में नाग देवता को दिखाया गया है।





महाभारत में अर्जन ने नाग राजा वासुकी की ऊलोपी नामक नाग कन्या स गंधर्व विवाह किया था।


वासुकी नाग की पूजा चम्बा, कल्ल आदि में की जाती है।


तक्षक नाग ने हिमालय में नाग राज्य स्थापित किया था।





खस - आयों की तीसरी शाखा जो मध्य एशिया से कश्मीर होते हुए परे हिमालय में फैल गयी. खश जाति कहलायी ।


रोहणु क्षेत्र के खशधार, खशकंदडी नाम के गाँव में इनके निवास का पता चलता है।


खशों का नाग जाति पर विजय के रूप में भण्डा उत्सव मनाया जाता है जिसमें 'बेडा जाति' के लोग जो नाग जाति के वंशज समझे जाते हैं. के एक परिवार के व्यक्ति की बलि इस उत्सव में दी जाती है।


खशों द्वारा निरमण्ड में मनाई जाने वाली 'बूढी दिवाली' भी इनकी यहाँ के आदिम जातियों पर विजय का प्रतीक है।


इसमें खश-नाग युद्ध का मंचन होता. है।


खश जाति ने निकले हुए कनैत (कुलिंद) लोग खशिया नाम से प्रसिद्ध हैं।


महाभारत में इस जाति का बार-बार उल्लेख आता है।


यह. लोग कौरवों की ओर से महाभारत का युद्ध भी लडे थे।


वायु पराण और विष्ण पराण में भी खशों का वर्णन आया है।





इन्हीं खश लोगों के. सरदारों ने बाद में छोटे-छोटे राज्य संघ बनाए जिन्हें 'मबाणा' कह गया।


खशों ने भी प्राचीन जातियों की भाँति बहुपति प्रथा को अपना लिया।


पाण्डवों ने भी वनवास के दौरान बहुपति प्रथा खशों से ली थी।





प्राचीन देवता





शिव- हिमाचल के आदि निवासियों द्वारा ऐसे देव की उपासना के प्रमाण मिलते हैं, जो शिवजी से मिलते-जुलते हैं।





इसका उदाहरण मणिमहेश,किन्नर कैलाश, महासू देवता का मंदिर है।





हिमाचल का प्राचीनतम धर्म शैव धर्म है।





पशुपति देवता की पूजा के प्रमाण सिंधु घाटी सभ्यता. में मिले हैं।





शक्ति- हि.प्र. में शिव उपासना के साथ-साथ शक्ति पूजा भी होती थी।


यह पौराणिक काल में दुर्गा, काली, अम्बा और पार्वती आदि नामों, से प्रसिद्ध हुई।





छतराणी में शक्ति देवी, भरमौर में लक्षणा देवी, ब्रजेश्वरी देवी मंदिर, ज्वालामुखी, हिडिम्बा देवी कुल्लू, नैनादेवी बिलासपुर, हाटेश्वरी देवी हाटकोटी और भीमाकाली सराहन हि.प्र. में शक्ति उपासना के प्राचीन प्रमाण हैं।





नाग देवता- नाग देवता के अनेक मंदिरों एवं पूजा स्थलों के प्राचीन प्रमाण हि.प्र. में प्राप्त हुए हैं।





(5) आर्य और हिमाचल- आर्यों की एक शाखा ने मध्य एशिया से होते हुए भारत में प्रवेश किया।


ये वैदिक आर्य कहलाए।


ये लोग अपना पशुधन, देवता और गृहस्थी का सामान लेकर आए और सप्त सिंधु प्रदेश की ओर बढ़े।


जहाँ पूरी तरह बसने में इन्हें 400 वर्ष का समय लगा।





सप्त सिंधु (पंजाब) से शिवालिक की ओर बढ़ने पर वैदिक आर्यों का सामना यहाँ के प्राचीन निवासियों कोल, किरात और नाग जाति के लोगों से हुआ।





शाम्बर-दिवोदास युद्ध- दस्यु राजा "शाम्बर" के पास यमुना से व्यास नदी के बीच की पहाड़ियों में 99 किले थे।


ऋग्वेद के अनुसार दस्यु राजा शाम्बर और आर्य राजा दिवोदास के बीच 40 वर्षों तक युद्ध हुआ।


अंत में दिवोदास ने उव्रज नामक स्थान पर शाम्बर का वध कर दिया।


आर्यों ने कोल, किरातों और नागों को निचली घाटियों से खदेड़ कर दुर्गम पहाड़ियों की ओर जाने पर बाध्य कर दिया।





ऋषि भारद्वाज आर्य राजा दिवोदास के मुख्य सलाहकार थे।





खश और आर्य- खशों को भी आर्यों ने दुर्गम पहाड़ियों की ओर भगा दिया जो वहीं बस गए, उन खशों को आर्यों ने अपने में विलीन कर लिया या दास बना लिया।


वैदिक काल





वैदिक आर्य- वैदिक आर्यों के शक्तिशाली राजा 'ययाति' ने सरस्वती नदी के किनारे अपने राज्य की नींव रखी।


उसके बाद उसका पत्र 'पुरु' इस राज्य का शासक बना। .





दशराग युद्ध- ऋग्वेद के अनुसार दिवोदास के पुत्र सूदास का युद्ध दस आर्य तथा अनार्य राजाओं के बीच हुआ था, जिसे दशराग युद्ध कहा जाता है।


सुदास की सेना का नेतत्व उनके गुरु और मन्त्री वशिष्ठ ने किया जबकि अन्य दस राजाओं की सेनाओं का नेतृत्व विश्वामित्र ने किया।


सुदास की सेना ने दस राजाओं (पुरु राज्य) की सेना को पराजित किया।


इसके बाद सुदास ऋग्वैदिक काल का सबसे शक्तिशाली राजा बना।





यह युद्ध रावी नदी के किनारे हुआ था।





वैदिक ऋषि- मण्डी को माण्डव्य ऋषि से, बिलासपुर को व्यास ऋषि से, निर्मण्ड को परशुराम से, मनाली को मनु ऋषि से तथा कुल्लू घाटी में मनीकरण के पास स्थित वशिष्ठ कुण्ड गर्म पानी के चश्मे को वैदिक ऋषि वशिष्ठ से जोड़ा जाता है।





जमदग्नि ऋषि- जमदग्नि ऋषि को जामलू देवता के रूप में मलाणा गाँव में पूजा जाता है।


जमदग्नि ऋषि जिस स्थान पर निवास करते थे वह 'जाम का टिब्बा' कहलाया।





यह सिरमौर जिले के रेणुका के पास स्थित है।





जमदग्नि ऋषि की पत्नी रेणका थी।





जमदग्नि महर्षि केपुत्र परशुराम का मंदिर रेणका झील के पास स्थित है।





अगस्त्य और गौतम ऋषियों ने भी रेणुका के आस-पास अपने-अपने आश्रम बनाए और बाद में अन्य स्थानों पर निवास करने चले गए।





ऋषि परशराम- वैदिक आर्य राजा सहस्त्रअर्जुन (कीर्तवीर्य) जब रेणुका पहुँचे तो वहाँ उनका स्वागत जमदग्नि ऋषि ने किया।





सहस्रअर्जुन ने जमदग्नि ऋषि से 'कामधेनु' गाय की माँग की जिसे ऋषि ने देने से इनकार कर दिया।


इस पर क्रोधित होकर उसने जमदग्नि ऋषि के आश्रम को नष्ट कर दिया और उनकी गायों को लूटकर ले गया।





परशुराम ने स्थानीय राजाओं तथा जातियों का संघ बनाकर सहस्रअर्जुन पर आक्रमण कर उसका वध कर दिया।





सहस्रअर्जुन के पुत्रों ने जमदग्नि ऋषि की हत्या कर दी।





इससे परशराम भडक गए और सभी क्षत्रियों पर आक्रमण करने लगे।





(3) महाभारत काल और हि.प्र. के चार प्राचीन जनपद- ऋग्वेद में हिमाचल को 'हिमवन्त' कहा गया है।





महाभारत में पाण्डवों ने अज्ञातवास का समय हिमाचल का ऊपरी पहाड़ियों में व्यतीत किया था।





भीमसेन ने वनवास काल में कुल्लू कीकुल देवी हिडिम्बा से विवाह किया था।





त्रिगर्त राजा सुशर्मा महाभारत युद्ध में कौरवों की ओर से लड़े थे।





कश्मीर, औदुम्बर और त्रिगर्त के शासक यधिष्ठिर को कर देते थे।





कलिन्द रियासत ने पाण्डवों की अधीनता स्वीकार की थी।





महाभारत में 4 जनपदों- त्रिगर्त, औदुम्बर, कुलिन्द और कुलूत का विवरण मिलता है।





आदुम्बर- महाभारत के अनुसार औदुम्बर विश्वामित्र के वंशज थे जो कौशिक गौत्र से संबंधित है।





औदम्बर राज्य के सिक्के कॉगडा. पठानकोट ज्वालामुखी, गुरदासपुर और होशियारपुर के क्षेत्रों में मिले हैं जो उनके निवास स्थान की पुष्टि करते हैं।





ये लोग शिव की पूजा करते थे।





पाणिनि के 'गणपथ' में भी औदुम्बर जाति का विवरण मिलता है।





अदम्बर वक्ष की बहलता के कारण यह जनपद औदम्बर कहलाता है।





ब्राह्मी और खरोष्ठी लिपि में औदुम्बरों के सिक्कों पर 'महादेवसा' शब्द मिला है जो ‘महादेव' का प्रतीक है।





सिक्कों पर त्रिशूल भी खुदा है।





औदुम्बरों ने तांबे और चांदी के सिक्के चलाए।





औदम्बर शिवभक्त और भेडपालक थे जिससे चम्बा की गद्दी जनजाति से इनका संबंध रहा होगा।





त्रिगर्त-त्रिगर्त जनपद की स्थापना भमिचंद ने की थी।





सुशर्मा उसकी पीढी का 231वाँ राजा था।





सुशर्म चन्द्र ने महाभारत युद्ध में कौरवों की सहायता की थी।





सुशर्म चन्द्र ने पाण्डवों को अज्ञातवास में शरण देने वाले मत्स्य राजा 'विराट' पर आक्रमण किया था (हाटकोटी) जो कि उसका पड़ोसी राज्य था।





त्रिगर्त, रावी, व्यास और सतलुज नदियों के बीच का भाग था।








सुशर्म चन्द्र ने काँगडा किला बनाया और नगरकोट को अपनी राजधानी बनायो।





कनिष्क ने 6 राज्य समूहों को त्रिगर्त का हिस्सा बताया था।





कौरव शक्ति, जलमनी, जानकी, ब्रह्मगुप्त, डन्डकी और कौन्दोप्रथा त्रिगर्त के हिस्से थे।





पाणिनी ने त्रिगर्त को आयधजीवी संघ कहा है जिसका अर्थ है-य. उल्लेख पाणिनी के अष्टाध्यायी, कल्हण के राजतरंगिनी, विष्णु पुराण, बृहत्संहिता तथा महाभारत के द्रोणपर्व में भी हुआ है।





कुल्लूत- कुल्लूत राज्य व्यास नदी के ऊपर का इलाका था जिसका विवरण रामायण, महाभारत, वृहतसंहिता, मार्कण्डेय पुराण, मुद्राराक्षस और मत्स्य पुराण में मिलता है।





इसकी प्राचीन राजधानी 'नग्गर' थी जिसका विवरण पाणिनि की 'कत्रेयादी गंगा' में मिलता है।





कुल्लू घाटी में राजा विर्यास के नाम से 100 ई. का सबसे पुराना सिक्का मिलता है। इस पर 'प्राकृत' और 'खरोष्ठी' भाषा में लिखा गया है। कुल्लूत रियासत की स्थापना 'प्रयाग' (इलाहाबाद) से आए 'विहंगमणि पाल' ने की थी।




कुलिंद पर अर्जुन ने विजय प्राप्त की थी।





कलिंद रियासत व्यास, सतलुज और यमना के बीच की भमि थी जिसमें सिरमौर, शिमला, अम्बाला और सहारनपुर के क्षेत्र शामिल थे।





वर्तमान समय के “कुनैत' या 'कनैत' का संबंध कुलिंद से माना जाता है।





कुलिंद के चाँदी के सिक्के पर राजा 'अमोघभूति' का नाम खुदा हआ मिला है।





यमुना नदी का पौराणिक नाम 'कालिंदी' है और इसके साथ-साथ पर पड़ने वाले क्षेत्र को कुलिंद कहा गया है।





इस क्षेत्र में उगने वाले 'कुलिंद' (बहेड़ा) के पेड़ों की बहुतायत के कारण भी इस जनपद का नाम कुलिन्द पड़ा होगा।





महाभारत में अर्जुन ने कुलिन्दों पर विजय प्राप्त की थी।





कुलिन्द राजा सुबाहू ने राजसूय यज्ञ में युधिष्ठिर को उपहार भेंट किए थे। कुलिंदों की दूसरी शताब्दी के 'भगवत चतरेश्वर महात्मन' वाली मुद्रा भी प्राप्त हुई है।





कुलिंदों की 'गणतंत्रीय शासन प्रणाली' थी।





कुलिन्दों ने पंजाब के योद्धाओं और अर्जुनायन के साथ मिलकर कुषाणों को भगाने में सफलता पाई थी।






मौर्यकाल एवं मौर्योत्तर काल





(i) मौर्यकाल / MAURYA PERIOD





सिकंदर का आक्रमण- सिकंदर ने 326 BC के समय भारत पर आक्रमण किया और व्यास नदी तक पहुँच गया।





सिकंदर के सैनिकों ने व्यास नदी के आगे जाने से इंकार कर दिया था।





इसमें सबसे प्रमुख उसका सेनापति 'कोइनोस' था।





सिकंदर ने व्यास नदी के तट पर अपने भारत अभियान की निशानी के तौर पर बारह स्तूपों का निर्माण करवाया था जो अब नष्ट हो चुके हैं।





चन्द्रगुप्त मौर्य- चन्द्रगुप्त मौर्य ने पहाड़ी राजा पर्वतक और अपने प्रधानमंत्री चाणक्य के साथ मिलकर मौर्य साम्राज्य की स्थापना की ओर कदम बढ़ाए।





विशाखादत्त के मुद्राराक्षस और जैन ग्रंथ परिशिष्टपवरण में पूर्वतक और चाणक्य के बीच संधि का वर्णन मिलता है।





'मुद्राराक्षस' के अनुसार चन्द्रगुप्त ने किरात और खशों को अपनी सेना में भर्ती किया।





पर्वतक निश्चय ही त्रिगर्त नरेश रहा होगा।





पर्वतीय राजाओं में केवल कुलूत के राजा चित्रवर्मा और कश्मीर के राजा पुष्कराक्ष ने चन्द्रगुप्त का विरोध किया था।





चाणक्य की सहायता से 323 ई.पू. में चन्द्रगुप्त नंदवंश का नाश कर सिंहासन पर बैठा और मौर्य साम्राज्य की स्थापना की।





कुलिंद राज्य को मौर्यकाल में शिरमौर्य कहा गया क्योंकि कुलिंद राज्य मौर्य साम्राज्य के शीर्ष पर स्थित था।





कालांतर में यह शिरमौर्य सिरमौर बन गया।





अशोक- चन्द्रगुप्त मौर्य के पोते अशोक ने मझिम्म और 4 बौद्ध भिक्षुओं को हिमालय में बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए भेजा।





ह्वेनसाँग के अनुसार अशोक ने कुल्लू और काँगड़ा में बौद्ध स्तूपों का निर्माण करवाया था।





कुल्लू के कलथ और काँगडा के चैतडू में अशोक निर्मित स्तूप स्थित है।





कालसी (उत्तराखण्ड) में अशोककालीन शिलालेख पाए गए हैं।





हिमालय क्षेत्र में बौद्ध धर्म के प्रचार में मझिम्म का साथ 4 बौद्ध भिक्षुओं- कस्सपगोता, धुन्धीभिसारा, सहदेव और मुलकदेव ने दिया।





हि.प्र. में 242 B.C. में ही बौद्ध धर्म का प्रवेश हो गया था।





210 B.C. के आसपास मौर्य साम्राज्य का पतन आरंभ हुआ जो 185 BC में शुंग वंश की स्थापना से पूर्ण हो गया।





(ii) मौर्योत्तर काल (शुंग, कुषाण वंश)- मौर्यों के पतन के बाद शुंग वंश पहाडी गणराज्यों को अपने अधीन नहीं रख पाए और वे स्वतंत्र हो गए।





ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी के आसपास शकों का आक्रमण शुरू हुआ।





शकों के बाद कुषाणों के सबसे प्रमुख राजा कनिष्क के शासनकाल में पहाड़ी राज्यों ने समर्पण कर दिया और कनिष्क की अधीनता स्वीकार कर ली।





कुषाणों के 40 सिक्के कालका-कसौली सड़क पर मिले हैं।





कनिष्क का एक सिक्का काँगड़ा के कनिहारा में मिला है।





पहाडी राजा कुषाणों के साथ अपने सिक्के चलाने के लिए स्वतंत्र थे।







दूसरी शताब्दी के अंत और तीसरी शताब्दी के प्रारंभ में कुषाणों की शक्ति कमजोर होने पर यौद्धेय, अर्जुनायन (पंजाब) और कुलिन्दों ने मिलकर कुषाणों को सतलुज पार धकेल दिया और अपनी आजादी के प्रतीक के रूप में सिक्के चलाए।




गुप्तकाल / GUPTA PERIOD





श्रीगुप्त के पोते चंद्रगुप्त प्रथम ने 319 AD में गप्त साम्राज्य की नींव रखी।





भारत के नेपोलियन 'समद्रगप्त' ने 340 ईसवीं में पर्वतीय जनपदों को जीतकर पर अपना आधिपत्य जमाया। 




हरिषेण के इलाहाबाद (प्रयाग) प्रशस्ति से 'भद्र, त्रिगर्त, औदुम्बर, कुल्लूत और कार्तिकपुर जनपदों पर समुद्रगुप्त की विजय का उल्लख मिलता है। 




सभी राजाओं ने उसकी अधीनता स्वीकार कर उसे जागीरदारों की तरह कर देते थे। 




कुलिन्द जनपद का उल्लेख इसमें नहीं मिलता। 




शायद वह चद्रगुप्त प्रथम के समय गुप्त साम्राज्य के अधीन आ गया होगा। 




समुद्रगुप्त ने पहाड़ी जनपदों से अपनी प्रभुता स्वीकार करवाकर उन्हें आन्तरिक आजादी शक्ति तथा सुरक्षा बनाए रखने की स्वतंत्रता प्रदान की।




 कुमार गुप्त के पुत्र स्कन्दगुप्त ने हणों को पराजित कर गुप्त साम्राज्य की प्रतिष्ठा को बनाए रखा। 




स्कंदगुप्त के बाद गुप्त साम्राज्य का प्रभाव घटने लगा और उसका विघटन हो गया। 




हूणों का आक्रमण गुप्त साम्राज्य के पतन का प्रमुख कारण था। 




कालीदास ने कुमारसम्भव और मेघदूत की रचना इसी काल में की थी जिसमें हिमालय का वर्णन मिलता है। 






गुप्तकाल में पर्वतीय प्रदेशों में हिन्दू धर्म का प्रभाव बढ़ा और अनेक मंदिरों का निर्माण हुआ।





गुप्तोत्तर काल (हूण, हर्षवर्धन) / POST GUPTA PERIOD





हूणों के आक्रमण- 521 ई. में हूणों ने तोरमाण के नेतृत्व में पश्चिमी हिमालय पर आक्रमण किया।





तोरमाण के पश्चात् उसके पुत्र मिहिरकुल जिसे भारत का एटिल्ला कहा जाता था ने 525 ईस्वी में पंजाब से लेकर मध्य भारत तक के क्षेत्र पर आधिपत्य जमा लिया।





मगध सम्राट नरसिंह बालादित्य और यशोवर्मन ने मिहिरकुल को पराजित कर कशमीर भागने पर मजबूर कर दिया।





गुज्जर स्वयं को हूणों के वंशज मानते हैं।





हर्षवर्धन एवं ह्वेनसाँग- हर्षवर्धन 606 ई. में भारत की गददी पर बैठा।





उसके शासनकाल में पाटलिपुत्र, थानेश्वर और कन्नौज शासन के प्रमुख केन्द्र रहे।







उसके शासनकाल में ह्वेनसाँग ने भारत की 629-644 ई. तक यात्रा की।





ह्वेनसाँग 635 ई. में जालंधर (जालंधर-त्रिगर्त की राजधानी) आया और वहाँ के राजा ुतिटस उदिमा का 4 माह तक मेहमान रहा।





भारत में चीन वापसी के समय 643 ई. में भी वह जालंधर में रुका था।





हेनसांग न जालंधर के बाद कुलु, लाहोल और सिरमौर की यात्रा की थी।





हर्षवर्धन की 647 ई. में मृत्यु हो गई।





'कल्हण' की पुस्तक 'राजतरंगिणी में कश्मीर के राजा ललितादित्य और यशोवर्मन के बीच युद्ध का विवरण मिलता है।





त्रिगर्त, ब्रह्मपुरा (चम्बा) और अन्य पहाडी क्षेत्रों पर यशोवर्मन के प्रभाव का विवरण मिलता है।





नौवीं शताब्दी में त्रिगर्त और ऊपरी सतलुज क्षेत्रों पर कश्मीर राज्य का अधिकार हो गया।





ह्वेनसांग ने जालन्धर (शे-लन-तलो), कुलूत, सिरमौर (शत्रुघ्न) की राजधानी सिरमौरी ताल, लाहौल (लो-ऊ-लो) की यात्रा का विस्तृत वर्णन दिया है।





चम्बा राज्य उस समय शायद त्रिगर्त के अधीन रहा होगा।





महायान धर्म के यहाँ प्रचलित होने का जिक्र उन्होंने अपनी पुस्तक 'सी-यू-की' में किया है।





निरमण्ड के ताम्रपत्र में स्पीति के राजा समुद्रसेन का वर्णन मिलता है।





हि.प्र. में त्रिगर्त और कुल्लूत के अलावा छोटे-छोटे सरदारों के समूह उभर आए जिन्हें ठाकुर और राणा कहा जाता था।





गुप्तोत्तर काल में ठाकुरों के शासनकाल को 'अपठकुराई' तथा अधिकार क्षेत्र को 'ठकुराई' कहा जाता था।





राणाओं के अधिकार क्षेत्र को 'राहुन ' कहा जाता था।





सातवीं से दसवीं शताब्दी के बीच मैदानों से आए राजपूतों ने हिमाचल में अपने राजवंश स्थापित किए।







इन्होंने राणाओं और ठाकुरों को अपने सामन्तों की स्थिति में पहुंचा दिया था।




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